-कामायनी के ढाई हजार शो करने वाला विरल गायक नृत्यकार जगदीश ढौंडियाल।
-कत्थक और लोक संगीत में दशकों की साधना, दक्षिण भारतीय राग रागनियों की गहरी समझ।
-वो शौहरत न मिलीं जिसके थे हकदार, सीनियर सीटिजन कलाकार एक पेंशन की चाहत।
- भानु प्रकाश नेगी
जगदीश ढौंडियाल नाम उत्तराखंड के कला जगत में कई लोगों के लिए अनजाना सा हो सकता है। लेकिन वो अद्भुत कलाकार हैं। । उत्तराखंड में कला संगीत की बेहतर समझ रखने वालों से बस उनका नाम भर ले लीजिए, एक ही बात सबके मुंह से निकलती है, बेजोड कलाकार हैं पर न जाने क्यों इतनी गुमनामी। उन्हें तो राष्ट्रीय फलक पर होना चाहिए था । जगदीश ढौंडियाल को कला का वरदान है। वे क्या नहीं गाते, फिर चाहे पहाडी लोकसंगीत हो, शास्त्रीय गायन हो या कामायनी की रचना। वह उत्तराखंड की सीमाओं से पार हिमाचल डोगरी दक्षिण भारतीय हर तरह के गीत गाते हैं। उनकी धुनें लाजवाब है। उनको रफी हेमंत किशोर के गीत गाते जिसने भी सुना वाह वाह कर उठा। संगीत पर उनकी अद्भुत समझ हैं। दशकों की साधना है। उत्तराखंड के कई कलाकार अपनी ख्याति पा चुके हैं उन्हें सम्मान से गुरूजी कहते हैं। एक तरफ बेजोड गायकी तो दूसरी तरफ कत्थक नृत्य की मोहकता। मगर कहीं अफसोस है तो यही कि उनकी शौहरत राष्ट्रीय फलक की हकदार था।
प्रश्न- इतनी अच्छी गायकी नृत्य कला और सगीत का इतना ज्ञान , क्या आपको नहीं लगता कि जिस शौहरत के आप हकदार थे वह आपके हिस्से नहीं आई।
उत्तर -मैं शिमला में जन्मा हूं। पढाई लिखाई दिल्ली में हुई। पिताजी फाईनेंस मिनस्ट्री में थे। सरकारी क्वाटर में रहते थे। साठ के दशक में दिल्ली गोल मार्केट के एक स्कूल से हाईस्कुल पास किया। वैसे हम पौडी के सांवली पटटी के रहने वाले हैं । संगीत कला गायकी का रुझान रामलीलाओं हुआ। । उन दिनों राम लीलाएं बड़े स्तर पर आयोजित की जाती थी। 14 साल की उम्र से में लक्ष्मण का रोल करता था। रामलीला एक ऐसा माध्यम था, फिल्म जगत में भी अधिकतर कलाकार रामलीलाऔं से निकले हुए हैं।
इसके बाद कला संगीत के लिए मेरी यात्रा शुरू हो गई। समय के साथ जयपुर घऱाने से मैंने कत्थक भी सीखा। लोग मेरे गाने को नृत्य कला को पसंद करते रहे।य़ मंच भी मिले। टीवी रेडियों ने भी समय समय पर बुलाया। पर आप ठीक कहते हैं कि शायद वो प्रसिद्धी मुझे नहीं मिली। । आज देखता हैं कि एक दो गीत गाकर लोग स्टार कहलाते हैं। मैंने डूबकर साधना की। शायद मेरा मिजाज भी कुछ अलग था। जमाने के अनुरूप अपने स्वभाव को लचीला नहीं बना सका। फिर भी मुझे कोई अफसोस नहीं। गीत संगीत मेरा जीवन है। इसमें अंतर्मन से मुझे बहुत सुख दिया है।
सवाल – पुराने समय की कला संगीत की गतिविधियों पर कुछ कहिए।
देखिए तब लोकगाथाओं लोक वाह्रय कथानक होते थे। उस समय माईक साउन्ड आदि कुछ नहीं होते थे। बिजली भी उस समय नहीं होती थी। कलाकार उस समय नुक्कड़ नाटक करते थे। उत्तराखण्ड़ से बादी होते थे। यह बिगड़ा हुआ शब्द है। वादको को वादी कहा जाता है, उस समय लोक कथाएं लोकगीतों को यही लोग गांव- गांव में प्रचारित करते थे। सामाजिक प्रवेश में कहां क्या हो रहा है। यह सभी घटनाओं को फैलाते थे। शास्त्रीय पद्यति जिन लोगों ने अपनाया है। व्यवसायिक रूप से आपको गुरू की शरण लेने पड़ती है। लोक और संगीत दोंनों जो गुरू के अभ्यास के समझ नहीं आती है। संगीत कला साफ्टवेयर है। बाकी दुनिया की सभी चीजें हाडवेयर है।
स्थापित कला को तैयार होने में 40 साल तक लग जाते है। 30 से 40 साल की साधना करनी पड़ती हैं। संगीत व नृत्य सबसे कठिन विधा है। मैंनें गुरू लोगों से सीखा 20 साल तक ड्रामा डिविजन में और 13 साल डांस कम्पोजर रहा। जय शंकर प्रसाद जी की कामायनी के ढाई हजार शौ किये है। पूरे देश में लास्या का उद्गम भगवती पार्वती से है और तांडव महादेव से। कथक कली पुरूषों का नृत्य है। वीर रस का रौद्र रस का उत्तर भारत का कथक हिन्दी शैली का है। बाकी नृत्य प्रांतीय शैली के हैं। कन्नड़, मलयालम की समृद्ध परंपरा है।
डोल सागर होने के बावजूद भी अर्न्तराट्रीय स्तर पर नही पाया है। हमारे यहां से अन्तराष्ट्रीय स्तर पर क्या नहीं गया, क्योंकि ढोल के वादकों की समाज में बेकद्री हुई है। ढोल सागर गूढ है। वर्णिक शब्द छंद, मात्रिक छंद सब महादेव के डमरू से निकले हुये हैं।
प्रश्न- आपके गुरूं कौन रहे है? आपको लोकगीत संगीत के साथ-साथ कथक नृत्य में भी पारंगतता हासिल की है?
उत्तर- लोक संगीत किसी खास परंपरा की नहीं है। लोक संगीत की शुरुआत रामलीलाओं के मंच से मिली। रामलीला में अभिनय करना स्वर की तरजीव ताल उस रोल को समझना अभिनय करना पक्ष वेशभूषा आदि पहले देखा फिर किया। खोज करने के बाद करना शुरू किया। इनसे एक प्रेरणा बनती गई। उस समय हम दिल्ली आकाशवाणी से गीत गाते थे। सुरताल लय में मुझे पर भगवान की कृपा रही है। हरमोनियम बजाना किसी से नहीं सीखा। फिल्में देखना मेरे बचपन का शोक था। आर.डी.वर्मन, शंकर जय किशन, ओ पी नैयैर सलिल चौधरी का अनुसरण करते रहें। इनको सुनते-सुनते दिमाग में संगीत घर करने लगा। बारीकियों के लिए उनकी कविताओं का गुण अध्ययन किया। क्यूं लिखी गई है?किस पहर पर लिखी गई है। उनके मूड को अपने मिजाज में ढालने की जरूरत है।
अभिनय में लगातार 25 साल का पाठ किया। दिल्ली में उससे परिपक्व हुआ
प्रश्न-राष्टी्रय नाट्य विद्यालय अपने आप में कोई पूर्ण कला है, तो नृत्य कला में कैसे आये?
उत्तर- मेरे गुरू हजारी लाल जी किसी कार्यक्रम में गये थे। स्कूल कार्यक्रम में मेरा कार्यक्रम था। उन्होंने मेरी कला को पहचान लिया। उन्होंने मुझसे पूछा कि यह कला किससे सिखी है। उन्होने कहा कि तुम्हारा फोक का बढिया ढंग है। तब उन्होंने अपने घर बुलाया। मैं उनके घर जाकर उन्होंने विधि विधान से मुझे शिष्य बनाया। गुरू शिष्य परंपरा से उनसे कथक सिखा। मैं लगभग 19 साल उनके घर रहकर ये कला सिखी। गुरू जी कि सेवा की। इस कला ने मुझसे बहुत कुछ छिना, पूरी जिंदगी दांव पर लगाई हुई है। जब तक आपके अन्दर किसी चीज को पाने का जुनुन ना हो कला पर नियंत्रण नहीं होता।
गुरू लोगों कला के प्रति हमारी श्रृद्धा देखी तब मुझे रागों कि जानकारी दी। नृत्य का अंग इसलिए पूर्ण है।
प्रश्न- गढ़वाली लोक व कथक में क्या समानता है?
उत्तर- यह प्रोयात्मक कार्य है। शास्त्रीय नृत्य में संगीत की जटीलता हैं। शास्त्रीय पप्दति बहुत कठिन है। लोग जीवन में शास्त्रीय पद्यति नहीं है और अभी समानता कहीं भी नहीं आयी है। अभी समानता की जरूरत है। कला में अगर प्रयोग नहीं करेगें तो वह जमी हुई झील का पानी हो जाता है। संगीत नदी की तरह होता है। निरंतर बढती जाती है व साफ रहती है। इसमें प्रयोग होने चाहिए। लोक संगीत किसी नियमित दायरे में नहीं है। जबकि शास्त्रीय संगीत में आपको बंधना पड़ता है। इसकी समय सीमा होती है। जबकि लोक संगीत में समय सीमा नहीं होती है।
राग व ताल पद्धति शास्त्रीय संगीत में है। पहाड़ी रागों में दुर्गा राग आम है यह दो प्रकार का है। एक लोक व दुसरा विशुद्ध दुर्गा व शास्त्रीय संगीत में आता है। हर गीत नृत्य के लायक नहीं होता।
प्रश्न-आपके आदर्श देवानन्द जी रहे है, यह शौक कहा से पला आपने?
देवानन्द, दलीप कुमार, राजकुमार साहब भारतीय सिनेमा के स्तंभ है।फिल्म इंडस्ट्रीज में सबसे ज्याद नकल देवानंद जी की हुई है। इनकी छवि व स्टाइल हर अंदाज में सभी से अलग रही है। मैने लक्ष्मण के रोल में भी कई बार इनकी नकल की है, जिसको दर्शको ने खूब सराह है। बस तब से मैं उनका फैन हो गया हूं।
प्रश्न- सब कुछ होने के बावजूद भी आप अभी तक गुमनामी के अंधेरे में गुम क्यों है
इन सब चीजों के पीछे हमारा समाज भी दोषी है। अभी तक प्रायोजक आयोजकों ने मुझे जानबूझ कर नजर अंदाज किया है। मुझे यह कहना प़डेगा कि मैं इस दर्जे का कलाकार हूंॅ। कलाकार को अपना स्वाभिमान रखना पडता है। और मेरा भी कोई स्वाभिमान है। मैने अपनी कला में 50 से 60 साल तक काम किया है, तब भी मुझे पूर्ण सफलता नही मिली है। मेरे जैसे कई और भी गुमनाम कलाकार है जिसके लिए अभी तक की राज्य सरकारें भी दोषी है। प्रतिभाओं की अभी तक की सरकारें अनदेखी करती रही है। और विशेष कर असली कलाकारों की जिसका मुझे काफी दुख व आक्रोष है आठ साल पहले संस्कृति विभाग में अपना बायोडाटा दे चुका हूं साथ ही अपने सभी अनुभवों की कॉपी भी दे चुका हूं। संस्कृति विभाग लगातार मेरी अनेदखी कर कर रही है मेरे जैसे कलाकारों के लिए इससे ज्यादा क्या त्रासदी हो सकती है। पहले तो संस्कृति विभाग को मेरे अनुभवों का फायदा लेना चाहिए था नही तो मेरी ऐसी अपमान तो नही करती। दो साल से संस्कृति विभाग की निदेशक बीना भट्ट को यह बताते बताते थक गया हूं कि मै सीनियर सीटिजन लोक कलाकार हूं। एक पेंशन के लिए तक तरस रहा हूं।
प्रश्न- लोकगायक रेखा धस्माना उनियाल के गुरू भी आप रहे है,उन्हें लोक संगीत के क्या क्या गुर सिखाए आपने?
मै अपनी कला को आसानी से किसी को नहीं सौंपता उसके लिए शिष्य में श्रद्धा ,सेवाभाव, सर्मपण होना जरूरी है। क्योकि अपने हिस्से का ज्ञान बांटना आसन नही होता है। रेखा मैं मेने यह भाव देखा है।तभी मैने उन्हें कुछ ज्ञान दिया है।रेखा घरेलू कामकाज करती है ,लेकिन उनकी सिखने की ललक मुझे उन्हें गुरू ज्ञान देने के लिए प्रेरित करता है।
गायकी काफी कठिन है विशेष कर शास्त्रीय संगीत को सीखना काफी मुस्किल होता है। नृत्य में कोई नही मिला जो मेराज्ञान ने सके।नई पीड़ी के बच्चे अगर मुझ से सीखना चाहते है तो मै तैयार हूंॅ। और नवोदित कलाकारों को मै कहना चाहता हूं की संगीत की प्रारंम्भिक शिक्षा अवश्य ले जब तक संगीत में डूबकी नहीं लगाओगें तब तक आगे नहीं बढ पाओगे। और नई पीडी को व्याकरण सिखने की आवश्यकता है। आज के गीत संगीतों के कारण समाज में विकृती मिल रही है।नई पीडी अपनी पब्लिसिटी के लिए कुछ भी गा लेती है और सोचती है कि हमें सब जा गये है मेरा कहना है कि मेरे जैसे कलाकार को जिसको सिखते सिखते 60 साल हो गये है उन्हें तो प्रसिद्धि नहीं मिल पायी है। तुम्हें कल कौन पहिचानेगा। सूटबूट पहनकर कोई कलाकार नहीं बन जाता है। विद्या पाने के लिए गुरू की शरण में जाना आवाश्यक है। संस्कृति के नाम यहां खूब दुकानें चल रही है।और संस्कति विभाग कारखाना बना हुआ है। कलाकार गुरू घराने से बनतें है।
आपकी कितनी भाषाओं की जानकारी रखतें है?
हिन्दी, संस्कृति, हिमाचली राजस्थानी व आंचलिक भाषा गढवाली की भी जानकारी है।साथ ही इन सभी भाषाओं में गा लेते है।